बुधवार, 20 नवंबर 2013

ग़ज़ल
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ताक़त का जिसको नश्शा हो जाता है
उसका लहजा ज़हर-बुझा हो जाता है

रुकता है इक रहरौ* पास तमाशे के
देखते-देखते इक मजमा हो जाता है

और बहारों से क्या शिकवा है मुझको
बस इक दिल का ज़ख्म हरा हो जाता है

आँखों वाले लोग ही कौन से बेहतर हैं
आँखों को भी तो धोखा हो जाता है

कुछ अच्छा करने की कोशिश में मुझसे
काम हमेशा कोई बुरा हो जाता है

क्यों अम्बर के तारे गिनने लगता हूँ
रात ढले मुझको ये क्या हो जाता है

बिखरी खुशियों को आवाज़ लगाता हूँ
ग़म का दस्ता जब यकजा* हो जाता है

सूरज की वहशत बढती जाती है और
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है

‘सौरभ’ प्यार ज़माने से कुछ हासिल कर
सबको घर,गाड़ी,पैसा हो जाता है.

रहरौ= मुसाफ़िर
यकजा=इकट्ठा